"जहां वादी अपने दावे के किसी भाग के बारे में वाद लाने का लोप करता है या उसे साशय त्याग देता है, वहां उसके पश्चात वह इस प्रकार लोप किये गये या व्यक्त भाग के बारे में वाद नहीं लायेगा"।

इस सिद्धान्त की उत्पत्ति निहित है;

  1. भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 115 में
  2. व्यवहार प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 11 में
  3. व्यवहार प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश II नियम 2 में।
  4. व्यवहार प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश I नियम 2 में। 

Answer (Detailed Solution Below)

Option 3 : व्यवहार प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश II नियम 2 में।

Detailed Solution

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सही उत्तर विकल्प 3 है। Key Points

  • सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 का आदेश 2 वाद तैयार करने से संबंधित है
  • आदेश 2 का नियम 2 मुकदमे से संबंधित है जिसमें संपूर्ण दावा शामिल है।
  • (1) प्रत्येक वाद में वह सम्पूर्ण दावा सम्मिलित होगा जिसे वादी वाद हेतुक के संबंध में करने का हकदार है; किन्तु वादी वाद को किसी न्यायालय की अधिकारिता के भीतर लाने के लिए अपने दावे के किसी भाग का त्याग कर सकता है।
  • (2) दावे के भाग का त्याग
    • जहां कोई वादी अपने दावे के किसी भाग के संबंध में वाद लाने से लोप करता है या जानबूझकर उसका त्याग कर देता है, वहां वह बाद में छोड़े गए या त्यागे गए भाग के संबंध में वाद नहीं लाएगा।
  • (3) अनेक अनुतोषों में से किसी एक के लिए वाद लाने में लोप करना
    • एक ही वाद हेतुक के संबंध में एक से अधिक अनुतोष का हकदार कोई व्यक्ति ऐसे सभी या किन्हीं अनुतोषों के लिए वाद ला सकेगा; किन्तु यदि वह न्यायालय की अनुमति के बिना ऐसे सभी अनुतोषों के लिए वाद लाने में लोप कर देता है तो वह तत्पश्चात् ऐसे लोप किए गए किसी अनुतोष के लिए वाद नहीं लाएगा।
  • स्पष्टीकरण .--इस नियम के प्रयोजनों के लिए, किसी दायित्व और उसके पालन के लिए संपार्श्विक प्रतिभूति तथा उसी दायित्व के अधीन उत्पन्न होने वाले उत्तरोत्तर दावों को क्रमशः एक ही वाद हेतुक माना जाएगा।
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